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मधुशाला भाग 2 [७०-९६](70-96) Harivanshrai Bachchan hindi poetry part 2

 मधुशाला भाग 2 [७०-९६](70-96) -हरिवंश राय बच्चन

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लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,

लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,

लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,

लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०।


कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला,

दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला,

मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी,

जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१।


ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला,

गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला,

साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा,

दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२।


क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला,

भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला,

मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला,

काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३।


प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला,

नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला,

जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से,

जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४।


अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला,

क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला,

तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई,

हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।७५।


यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला,

पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला,

क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के

डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।।७६।


यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला,

यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,

हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर,

मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।।७७।


याद न आए दुखमय जीवन इससे पी लेता हाला,

जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,

शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है,

पर मै वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला।।७८।


गिरती जाती है दिन प्रतिदन प्रणयनी प्राणों की हाला

भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदन सुभगे मेरा तन प्याला,

रूठ रहा है मुझसे रूपसी, दिन दिन यौवन का साकी

सूख रही है दिन दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९।


यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,

पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,

यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,

पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।८०।


ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला

पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला,

हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले

कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१।


मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला

मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,

मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना

राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२।


मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला

आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,

दे मुझको वो कान्धा जिनके पग मद डगमग होते हों

और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।


और चिता पर जाये उंढेला पात्र न घ्रित का, पर प्याला

कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,

प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना

पीने वालों को बुलवा कऱ खुलवा देना मधुशाला।।८४।


नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला

काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला,

जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की

धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५।

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ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,

पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,

और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,

किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।


यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,

चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला,

स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,

ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७।


पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला,

नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,

साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है,

कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८।

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शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,

'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,

कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!

कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९।


जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला,

जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला,

जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी,

जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०।

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देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला,

देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला,

'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे,

किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।


कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला,

छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला,

कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती,

आँख मिचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२।


'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,

होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,

नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,

बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३।


हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला,

अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला,

दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो,

रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-मिलते मधुशाला।।९४।


प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,

प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला,

दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ,

व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५।


मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला,

मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला,

हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई

'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!'।९६।

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