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A woman needs to be raised / Shail Chaturvedi in Hindi poetry औरत पालने को कलेजा चाहिये / शैल चतुर्वेदी

 औरत पालने को कलेजा चाहिये / शैल चतुर्वेदी

एक दिन बात की बात में

बात बढ़ गई

हमारी घरवाली

हमसे ही अड़ गई

हमने कुछ नहीं कहा

चुपचाप सहा

कहने लगी-"आदमी हो

तो आदमी की तरह रहो

आँखे दिखाते हो

कोइ अहसान नहीं करते

जो कमाकर खिलाते हो

सभी खिलाते हैं

तुमने आदमी नहीं देखे

झूले में झूलाते हैं


देखते कहीं हो

और चलते कहीं हो

कई बार कहा

इधर-उधर मत ताको

बुढ़ापे की खिड़की से

जवानी को मत झाँको

कोई मुझ जैसी मिल गई

तो सब भूल जाओगे

वैसे ही फूले हो

और फूल जाओगे


चन्दन लगाने की उम्र में

पाउडर लगाते हो

भगवान जाने

ये कद्दू सा चेहरा किसको दिखाते हो

कोई पूछता है तो कहते हो-

"तीस का हूँ।"

उस दिन एक लड़की से कह रहे थे-

"तुम सोलह की हो

तो मैं बीस का हूँ।"

वो तो लड़की अन्धी थी

आँख वाली रहती

तो छाती का बाल नोच कर कहती

ऊपर ख़िज़ाब और नीचे सफेदी

वाह रे, बीस के शैल चतुर्वेदी


हमारे डैडी भी शादी-शुदा थे

मगर क्या मज़ाल

कभी हमारी मम्मी से भी

आँख मिलाई हो

मम्मी हज़ार कह लेती थीं

कभी ज़ुबान हिलाई हो


कमाकर पांच सौ लाते हो

और अकड़

दो हज़ार की दिखाते हो

हमारे डैडी दो-दो हज़ार

एक बैठक में हाल जाते थे

मगर दूसरे ही दिन चार हज़ार

न जाने, कहाँ से मार लाते थे


माना कि मैं माँ हूँ

तुम भी तो बाप हो

बच्चो के ज़िम्मेदार

तुम भी हाफ़ हो

अरे, आठ-आठ हो गए

तो मेरी क्या ग़लती

गृहस्थी की गाड़ी

एक पहिये से नहीं चलती


बच्चा रोए तो मैं मनाऊँ

भूख लगे तो मैं खिलाऊँ

और तो और

दूध भी मैं पिलाऊँ

माना कि तुम नहीं पिला सकते

मगर खिला तो सकते हो

अरे बोतल से ही सही

दूध तो पिला सकते हो

मगर यहाँ तो खुद ही

मुँह से बोतल लगाए फिरते हैं

अंग्रेज़ी शराब का बूता नहीं

देशी चढ़ाए फिरते हैं

हमारे डैडी की बात और थी

बड़े-बड़े क्लबो में जाते थे

पीते थे, तो माल भी खाते थे

तुम भी चने फांकते हो

न जाने कौन-सी पीते हो

रात भर खांसते हो


मेरे पैर का घाव

धोने क्या बैठे

नाखून तोड़ दिया

अभी तक दर्द होता है

तुम सा भी कोई मर्द होता है?

जब भी बाहर जाते हो

कोई ना कोई चीज़ भूल आते हो

न जाने कितने पैन, टॉर्च

और चश्मे गुमा चुके हो


अब वो ज़माना नहीं रहा

जो चार आने के साग में

कुनबा खा ले

दो रुपये का साग तो

अकेले तुम खा जाते हो

उस वक्त क्या टोकूं

जब थके मान्दे दफ़्तर से आते हो


कोई तीर नहीं मारते

जो दफ़्तर जाते हो

रोज़ एक न एक बटन तोड़ लाते हो

मैं बटन टाँकते-टाँकते

काज़ हुई जा रही हूँ

मैं ही जानती हूँ

कि कैसे निभा रही हूँ

कहती हूँ, पैंट ढीले बनवाओ

तंग पतलून सूट नहीं करतीं

किसी से भी पूछ लो

झूठ नहीं कहती

इलैस्टिक डलवाते हो

अरे, बेल्ट क्यूँ नहीं लगाते हो

फिर पैंट का झंझट ही क्यों पालो

धोती पहनो ना,

जब चाहो खोल लो

और जब चाहो लगा लो


मैं कहती हूँ तो बुरा लगता है

बूढ़े हो चले

मगर संसार हरा लगता है

अब तो अक्ल से काम लो

राम का नाम लो

शर्म नहीं आती

रात-रात भर

बाहर झक मारते हो


औरत पालने को कलेजा चाहिये

गृहस्थी चलाना खेल नहीं

भेजा चहिये।"

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